नारी दिवस
..,मर्दानी ...,
अब
भरवाओं.., मर्दों से पानी...
राजनीती
से समाज ने तुम्हारी पवित्रता को पतितता से,
बेड रूम (BED
ROOM-शयनयान)
की वस्तु बनाकर, भष्टाचार की ऊंची उड़ान भरी है और देश का बेड-रूप बना दिया
है...
.
नारी तुम
सब पर भारी..., अब अपने मर्दों (सरपंच से नेता) से कहों...,
अब बेड
रूम में तुम्हारे प्रपंच का खेल नहीं चलेगा...,
भ्रष्टाचार
के प्रपंच की पतितता से अब देश में नारी की कुरूपता का व्यव साय नहीं चलेगा
आओं..,
अपने
मर्दों से कहों.., राजनीती की बातें BED-ROOM
में नहीं,
घर के DRAWING
–रूम (बैठक
कमरे) में हो..., ताकि, मैं देश की एक नई तस्वीर बना सकूं...
अब तक
तो.., देश के मर्द सत्ता के मद में देश का मधु पी रहें थे .....
आओं...,
मर्दों से
कहो..., देश की महिलाओं को जगाकर कहो..,
अब,
हम
तुम्हारी बैसाखी नहीं..., बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं...,
अब हमारे
संस्कारों की सम्मानता से.., हम देश के हर नागरिकों को समान प्यार से,
उनके जीवन
की प्रेरणा को और उज्जवलित करेंगें...
नारी...,
तेरा
प्यार दिल के आँसुओ से भरा रहता है,
तुम्हारा
दिल तो वात्सलय से 24 घंटे धडकता.. है... हर दु:ख पहुचाने वाले पति से बच्चे हर
सख्श तक को आप माफ कर देती हो.. तकि आप की आँसू से वे अपने गलती का अहसास समझ कर
प्रायश्चित (सुधर सके) कर सके,
आप तो माँ
की रूप में , सौ बार अपने आँसुओ से मौका देती
है....माँ..,
तेरे आँसु
सागर से भी गहरे है. लेकिन तेरे सागर के आँसु तो लोगो को जीवन मे कैसे तैरना है,वह सिखाती है...आज तक तेरे आँसु के सागर कोई भी डूबा नही
है...क्यो कि इसमे वात्सलय का नमक है...
आपके खून
में ही तो देश का वात्सल्य , अभिमान व देश की हरियाली छीपी है...,
तुम
आरक्षण की वस्तु नहीं देश के संरक्षण की धारा हो...
हमारे
समाज के पिस्सुओं ने देश की बच्चियों से नारी को पतितता से वेश्यावृती के धन से अब
बलात्कार की हुंकार भर कह रहें हैं...,
युवाओं का
यह है अधिकार.., है...
नारी..,
समाज के
पिस्सुओं ने देहव्यापार में धकेले ढकेले कर...,
तुम्हारी
पतितता में भी पवित्रता है..,
नारी..,
इंसानों
में सर्वोत्तम तुम ही और केवल तुम ही हो...
वेश्या
पतिता नहीं होती, पतन को रोकती है /
पतित जन
की गन्दगी , अपने ह्रदय में सोखती है/
जो
विषैलापन लिए हैं घूमते नरपशु जगत में ,
उसे
वातावरण में वह फैलने से रोकती है /
यही तो
गंगा रही कर , पापियों के पाप धोती ,
वह
सहस्रों वर्ष से , बस बह रही है कलुष ढोती,
शास्त्र
कहते हैं कि गंगा मोक्षप्रद है, पावनी है ,
किसलिए
फिर और कैसे वेश्या ही पतित होती ?
मानता हूँ
, वेश्या निज तन गमन का मूल्य लेती ,
किन्तु
सोचो कौन सा व्यापार उनका ,कौन खेती ?
और यह भी ,
कौन सी
उनकी भला मजबूरियां हैं ,
विवश यदि
होती न, तो तन बेचती क्यों दंश लेती ?
मानता यह
भी कि वेश्यावृत्ति , पापाचार है यह ,
किन्तु
रोटी है ये उनकी , पेट हित व्यापार है यह ,
देह सुख
लेते जो उनसे, वही उनको कोसते भी,
और फिर
दुत्कार सामाजिक भी , अत्याचार है यह /
गौर से
देखो , बनाते कौन उनको वेश्याएं ,
और वे हैं
कौन, जो इस वृत्ति को खुद पोषते हैं ?
पतित तो
वे हैं , जो रातों के अंधेरों में वहां जा -
देह सुख
भी भोगते हैं , और फिर खुद कोसते हैं /
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